वाणी के जगत के समानांतर,
धारण किये उसे भी ,
किन्तु अस्पर्शित, अभेद्य , अप्रभावित,
स्थापित एक वर्तुल में ,स्वयं में लीन
विस्तीर्ण और अविभाज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य ,
वाणी के भरता घाव स्थायित्व से ,
गर्भवती स्त्री सा ,
स्वयं से ठीक विपरीत को पोषण दे ,
पूरी सहिष्णुता से,
बिन राजा , बिन प्रजा , ये कैसा राज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य …
भासता निष्टुर , किन्तु है करुणामय ,
बैठा अनमना सा,
ढोता ब्रह्माण्ड को सहज ही ,
निश्चिन्त उपवास में रत ,
देता प्रवेश निस्पंद , विदा भी, बिन क्रंदन ,
परम अद्वैत में स्थित,
न कुछ ग्राह्य , न त्याज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य